कृषि भूमि पर अत्यधिक सिंचाई करने से खेत की मिट्टी, जल उपलब्धता की दृष्टि से जब पूर्ण संतृप्त हो जाती है तो उस क्षेत्र के भूगर्भिक जल की सतह धरातल के समीप आ जाती है। ऐसी स्थिति को जलाक्रांति कहा जाता है। मानव द्वारा कुछ ऐसे कृषि क्षेत्रों में कृषि भूमि से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिये नहरों या ट्यूबवैलों द्वारा अधिकाधिक सिंचाई प्रदान की गयी है, जहाँ जल निकास की उत्तम व्यवस्था नहीं है। ऐसी स्थिति में कृषि क्षेत्र की मिट्टी जल से तो आच्छादित रहती ही है, साथ ही उसे क्षेत्र के भू-गर्भिक जल का जल स्तर भी धरातल के समीप आ जाता है। ऐसी मिट्टियाँ जलाक्रांत मिट्टियाँ कहलाती हैं। जलाक्रांत मिट्टियों में पौधों के भार को सहन करने की क्षमता कम हो जाती है, साथ ही ऐसी मिट्टी में पौधों के श्वसन के लिये आवश्यक ऑक्सीजन भी नहीं होती तथा जो भी कृषि फसल उगायी जाती है, वह पानी या कीचड़ में निमग्न रहती है, ऐसी जलाक्रांत मिट्टियाँ कृषि उत्पादन के लिये अनुकूल नहीं मानी जाती। जलाक्रांत मिट्टियों के प्रभाव से या तो कृषि उत्पादन बहुत कम प्राप्त हो पाता है या इन मिट्टियों में कृषि कार्य पूर्ण से बाधित हो जाता है।
“भारत में जलाक्रांति की समस्या को स्पष्ट रूप में पश्चिमी राजस्थान राज्य में इन्दिरा गाँधी नहर द्वारा सिंचित क्षेत्रों में देखा जा सकता है। इन्दिरा गाँधी नहर की अनूपगढ़ शाखा क्षेत्र में अत्यधिक नहरी सिचाई से लगभग 50 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि गम्भीर रूप से जलाक्रांत हो गयी है जिसके कारण इस जलाक्रांत क्षेत्र में कृषि कार्य पूर्ण रूप से बाधित हो गया है। यही नहीं, इस क्षेत्र में समय-समय पर आने वाली बाढ़ों ने जलाक्रांति की समस्या को और गम्भीर बना दिया है।
भारत के राष्ट्रीय बाद आयोग के अनुसार भारत में जलाक्रांति प्रभावित क्षेत्र का कुल क्षेत्रफल लगभग 85 लाख हेक्टेयर है। वस्तुतः भारत में जलाक्रांति की समस्या के लिये अत्यधिक सिंचाई के साथ-साथ समय-समय पर आने वाली बाई प्रमुख रूप से उत्तरदायी है।